भगवान का शिव—शक्ति स्वरूप?
शिव और सूर्य और उसका प्रकाश एवं अग्नि में तेज व्याप्त है, उसी भान्ति वैचितन्न्यपूर्ण संसार के रूप में अभिव्यक्त शक्ति के आधार एवं अधिष्ठान शिव हैं। जैसे पुष्प में गन्घ, चन्द्रमा में चांदनी स्वभावत: सिद्ध है। शक्ति के ही उमा, दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री आदि विभिन्न नाम व स्वरूप हैं। शिव ब्रह्मा हैं, और उमा सरस्वती। शिव विष्णु हैें और उमा लक्ष्मी। शिव सूर्य हैं तो उमा छाया। शिव अग्नि हैं तो उमा स्वाहा। इस प्रकार सर्वत्र शिव के साथ शक्ति विद्यमान रहती हैं। शक्ति की साधना के बिना शिव अर्थात् कल्याण की प्राप्ति सम्भव नहीं। सर्वप्रथम शक्ति के सम्मुख आत्म समर्पण करना पड़ता है। बिना शक्ति की सहायता के भगवान् शिव का साक्षात्कार नहीं होता। शिव की आराधना में शक्ति की पूजा है, शक्ति की उपासना में भी शिव की उपासना है। शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना के शिव नहीं। इनमें तत्त्वत: कोई अन्तर नहीं।
जीवन की सूक्ष्म औैर स्थूल जितनी भी क्रियाएॅं हैं, सभी शक्ति के कार्य हैं। शक्ति ईश्वरीय तत्त्व मानी जाती है। शक्ति ही समस्त चर और अचर में व्याप्त है। शिव की आराधना ही शक्ति की आराधना है। शिवलिंग की पूजार्चना में भी शिव—शक्ति के संयुक्त रूप की पूजा उपासना की जाती है। शिवपुराण(विद्येश्वरी संहिता) अनुसार समस्त लिंग पीठ (आधार) पकृति पार्वती और लिंग को चिन्मय पुरूष (शिव) समझना चाहिए—
पीठमम्बामय सर्वं शिवलिंगं च चिन्मयम् (विद्ये स.)
भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप भी मानव जाति की प्रथम सृष्टि का प्रतीक है। भगवान् सदाशिव के अर्धनारीश्वर से ही सृष्टि की उत्पति हुई। सभी पुरूष प्राणी भगवान् सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिव—शक्ति की अंशभूता हैं—
शंकर: पुरूषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी।
द्वाभ्यां तनुभ्यां व्याप्तं हि चराचरमिदं जगत्।।
भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। स्त्री और पुरूष—दोनों ईश्वर की प्रतिकृति है। स्त्री उनका सदरूप है, परन्तु आनन्दानुभूति एवं सामन्जस्यकी स्थिति तभी मिलती है, जब दोनों तात्त्विक रूप मिलकर एक हो जाते है। शिव गृहस्थों के भी आदर्श ईश्वर हैं, विवाहित दम्पत्तियों के उपास्य देव हैं। शिव परिवार में शिव पुरूषों व पार्वती स्त्रियों के लिए उपास्य है। गणेश व कार्तिकेय दोनों बुद्धिमान, वीर एवं आज्ञाकारी पुत्रों के रूप में आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
इस प्रकार अनादिकाल से भगवान शिव की मूर्ति एवं शिवलिंग के रूपमें पूजा—अर्चना होती आई है तथा आदि शक्ति की सिद्धपीठ के रूप में प्रतिष्ठा व पूजार्चना होती आई है। जब परात्म शिव अपनी शक्ति को व्यक्त एवं क्रिया रूप में परिणत करते हैं, तब वही क्रियामयी शक्ति (प्रकृति) शिव को विविध रूपों में प्रकट करके उनकी क्रीड़ा के उपरकण प्रस्तुत करती है।
शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शत्त्क: प्रभितुम।
न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि।।
वास्तव में शिव—पार्वती की उपासना शिव और शक्ति के रूप में परात्पर विराट् प्ररूष और अभिव्यक्त प्रकृति की उपासना है।
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