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महादेव की एक ऐसी यात्रा जिसमें लोगों की रूह कांप जाती है।

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।।श्रीखंड महादेव।। वैसे तो कहां जाता है की कैलाश मानसरोवर की यात्रा सबसे कठिन और धार्मिक मानी जाती है। अगर उसके बाद किसी का नंबर आता है तो वो है अमरनाथ यात्रा, लेकिन हिमाचल प्रदेश के श्रीखंड महादेव की यात्रा अमरनाथ यात्रा से भी ज्यादा कठिन है। अमरनाथ यात्रा में जहां लोगों को करीब 14000 फीट की चढ़ाई करनी पड़ती है तो श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए 18570 फीट की ऊचाई पर चढ़ना होता है और यहां पहुंचने का रास्ता भी बेहद खतरनाक है। दुनिया की सबसे दुर्गम धार्मिक यात्राओं में शुमार होने के बावजुद श्रीखंड यात्रा के लिए देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यात्रा में पहुंचते हैं। श्रीखंड यात्रा के लिए 25 किलोमीटर की सीधी चढाई श्रद्धालुओं के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होती है। कई दफा तो इस यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं की मौत भी हो चुकी है। 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित श्रीखंड यात्रा के दौरान सांस लेने के लिए ऑक्सीजन की भी कमी पडती है। श्रीखंड जाते समय करीब एक दर्जन धार्मिक स्थल व देव शिलाएं हैं। श्रीखंड में भगवान शिव का शिवलिंग हैं। श्रीखंड से करीब 50 मीटर पहले पार्वती , गणेश व कार्तिक स

हरेला पर्व क्या है चलिए जानते हैं ?

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।। हरेला पर्व।। उत्तराखंड में हरेला पर्व मनाया जाता है इसका महत्व उत्तराखंड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा है हरेला पर्व वैसे तो साल में तीन बार मनाया जाता है। १. चैत्र  मास - यह चैत्र मास के प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है। २. श्रावण मास - चैत्र मास सावन लगने से 9 दिन पहले  आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। ३.  आश्विन मास-  आश्विन मास मैं नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है तथा दशहरे के दिन  काटा जाता है। कहा जाता है कि उत्तराखंड में श्रावण मास में आने वाले हरेला को ज्यादा महत्व दिया जाता है।क्योंकि श्रावण मास भगवान शंकर को अति प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है की उत्तराखंड एक पहाड़ी प्रदेश है और माना जाता है और पहाड़ों में ही भगवान शंकर का वास है ऐसा कहा जाता है इसीलिए उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है क्योंकि यह देवों की भूमि है जहां सभी देव वास करते हैं। इसलिए भी उत्तराखंड में श्रावण मास का पहला हरेला का महत्व अधिक है।     सावन   लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का

गुरू पूर्णिमा (Guru Purnima)

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गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ अर्थात् : गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात परमब्रह्म हैं; ऐसे गुरु का मैं नमन करता हूँ।     आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहा जाता है इस  दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। इस दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यासजी​ का जन्मदिन भी हैवे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्म

श्री दु्र्गा कवच(Durga kawach)

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॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥ ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,  श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः। ॐ नमश्‍चण्डिकायै॥ मार्कण्डेय उवाच ॐ यद्‌गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥ ब्रह्मोवाच अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥ प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥ अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥ न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥ प्रेतसंस्था तु चा

भगवान शिव के पूजन करने की विधि

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पूजन सामग्री देव मूर्ति के स्नान के लिए तांबे का पात्र, तांबे का लोटा, दूध, अर्पित किए जाने वाले वस्त्र । चावल, अष्टगंध, दीपक, तेल, रुई, धूपबत्ती, चंदन, धतूरा, अकुआ के फूल, बिल्वपत्र, जनेऊ, फल, मिठाई, नारियल, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद व शक्कर), सूखे मेवे, पान, दक्षिणा में से जो भी हो। सकंल्प लें पूजन शुरू करने से पहले सकंल्प लें। संकल्प करने से पहले हाथों मेे जल, फूल व चावल लें। सकंल्प में जिस दिन पूजन कर रहे हैं उस वर्ष, उस वार, तिथि उस जगह और अपने नाम को लेकर अपनी इच्छा बोलें। अब हाथों में लिए गए जल को जमीन पर छोड़ दें। संकल्प का उदाहरण जैसे 17/2/2015 को श्री शिव का पूजन किया जाना है। तो इस प्रकार संकल्प लें। मैं (\अपना नाम बोलें) विक्रम संवत् 2071 को, फाल्गुन मास के चतुदर्शी तिथि को मंगलवार के दिन, श्रवण नक्षत्र में, भारत देश के मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन शहर में महाकाल तीर्थ में इस मनोकामना से (मनोकामना बोलें) श्री शिव का पूजन कर रही / रहा हूं। आवाहन (शिव जी को आने का न्यौता देना) ऊँ साम्ब शिवाय नमः आव्हानयामि स्थापयामि कहते हुए मूर्ति पर चावल चढ़ाएं। आवाहन का अर्थ

होली क्यों मनायी जाती है ?

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होली क्यों मनाते हैं? होली एक ‘रंगों का त्यौहार’ ​है हिंदू कैलेंडर के अनुसार, होली महोत्सव फाल्गुन पूर्णिमा में मार्च (या कभी कभी फरवरी के महीने में) के महीने में वार्षिक आधार पर मनाया जाता है। तेज संगीत और ढोल के बीच एक दूसरे पर रंग और पानी फेंका जाता है। भारत के अन्य त्यौहारों की तरह होली भी बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। यह लोगो के बीच एकता और प्यार लाता है। इसे "प्यार का त्यौहार" भी कहा जाता है। यह एक पारंपरिक और सांस्कृतिक हिंदू त्यौहार है, जो प्राचीन समय से पुरानी पीढियों द्वारा मनाया जाता रहा है और प्रत्येक वर्ष नयी पीढी द्वारा इसका अनुकरण किया जा रहा है। पौराणिक कथा के अनुसार होली से हिरण्यकश्यप की कहानी जुड़ी है। क्या है होली का इतिहास चलिए आपको बताते है। पौराणिक कथाओं के अनुसार हिरण्यकश्यप प्राचीन भारत का एक राजा था जो कि राक्षस जाती का था। वह अपने छोटे भाई की मौत का बदला लेना चाहता था जिसे भगवान विष्णु ने मारा था। इसलिए ताकत पाने के लिए उसने सालों तक प्रार्थना की। आखिरकार उसे वरदान मिला। लेकिन इससे हिरण्यकश्यप खुद को भगवान समझने लगा और लोगों से ख

Maha Shivaratri (महाशिवरात्रि क्या है)

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महाशिवरात्रि क्या है इसका क्या महत्व है चलिए जानते है। महाशिवरात्रि हिंदू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार इसे हर साल  फाल्गुन माह में 13वीं रात या 14वें दिन मनाया जाता हैै। इस त्योहार में श्रद्धालु पूरी रात जागकर भगवान शिव की आराधना में भजन गाते हैं। कुछ लोग पूरे दिन और रात उपवास भी करते हैं। शिव लिंग को पानी और बेलपत्र चढ़ाने के बाद ही वे अपना उपवास तोड़ते हैं। माना जाता है कि महाशिवरात्रि पर भगवान मानवजाति के काफी निकट आ जाते है। मध्यरात्रि के समय ईश्वर मनुष्य के सबसे ज्यदा निकट होते है। यही करण है कि लोग शिवरात्रि के दिन रातभर जागते है महिलाओं के लिए शिवरात्रि का विशेष महत्व क्या है। अविवाहित महिलाएं भगवान शिव से प्रार्थना करती हैं कि उन्हें उनके जैसा ही पति मिले। वहीं विवाहित महिलाएं अपने पति और परिवार के लिए मंगल कामना करती है। ऐसा माना जाता है। जब कोई महिला भगवान शिव से प्रार्थना करती है तो भगवान शिव उनकी प्रार्थना को आसानी से स्वीकार कर लेते है। भगवान शिव की पूजा में किसी विशेष सामग्री की जरूरत नहीं पड़ती है। सिर्फ पानी और बेलपत्र के जरिए भी श्रद्

भगवान् विष्णु के जपनीय मन्त्र (Lord Vishnu mantra Jpaniy)

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भगवान विष्णु जी त्रिदेवों में से एक हैं। विष्णु जी को सृष्टि का संचालक कहा जाता हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी है। विष्णु जी क्षीर सागर में विराजमान रहते हैं। यह अपने भक्तों पर विशेष कृपा दृष्टि बनाए रखते है और उन्हें शुभ फल प्रदान करते हैं। भगवान् विष्णु के जपनीय मन्त्र भगवान विष्णु एवं किसी भी देवी—देवता के मन्त्र का जाप करने से पूर्व शास्त्रीय नियमानुसार विनियोग, ह्रदयादि न्यास, करन्यास, षोडशोपचार पूजन, प्राणायाम, ध्यानादि प्रक्रियाएॅं करना आवश्यक मना गया है। जपोपरान्त भगवान् विष्णु के प्रसिद्ध स्तोत्र 'विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र' का पाठ करने का विधान है। इसके अतिरिक्त भगवान सम्बन्धी अन्य स्तोत्रों का पाठ भी कर श्रद्धानुसार किया जा सकता है। जैसे कुछ स्तोत्र इस प्रकार है— नृसिंह स्तोत्र, संकटनाशन स्तोत्र, श्रीनारायण स्तोत्र, नारायण  कवच, नारायणाष्टक, पापप्रशमन विष्णु स्तोत्र, गजेन्द्रमोक्ष स्तोत्र, कमलेनत्र स्तोत्र, श्रीविष्णो अष्टविशति नाम स्तोत्र, हरिहर स्तोत्र। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए इस मंत्र का जाप करना चाहिए। ॐ नमो: नारायण ।। ॐ नमोः नारायणाय ।। ॐ नमो

भगवान का दिव्यास्त्र—त्रिशूल क्या है? इसका रहस्य चलिए जानते है ?(God Diwyastr-Trident)

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भगवान का दिव्यास्त्र—त्रिशूल भगवान् शिव—त्रिशूल, पिनाक, पाशुपतादि अस्त्र करने वाले हैं। त्रिाशुल भी शक्ति का प्रतीक है। त्रिशूल द्वारा भगवान शिव आसुरी शक्तियों का विनाश करते हैं। शूलत्रयं संवितरन् दुरात्मने त्रिशूलधारिन् नियमेन शोभ से ।। (शैव. सं.) त्रिशूल तिनों प्रकार के शूलों (तापों) आधिभौतिक  एवं आध्यात्मिक तापों का नाश करने वाला भी माना जाता है। शस्त्रादि से चोट लगना, सवारी आदि दुर्घटनाग्रस्त होना, ऊॅंचाई से गिरना, विषादि से मरना आधिाभौतिक ताप हैं। बाढ़, अग्नि, भूकम्प, अनावृष्टि, अतिवर्षा आदि आध्यात्मिक ताप कहलाते हैं। त्रिशूल साक्षी है कि भगवान शिव की पूजार्चना से साधक के तीनों ताप नष्ट होकार उसकी मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक शक्तियों का विकास होता है तथा काम, क्रोध, लोभादि राक्षसी वृत्तियों का नाश होता है। जब साधक भगवान् शिव की भक्ति के प्रभावस्वरूप परमात्मभाव में स्थित होता है, तो ीिनों ताप साधक को कुछ भी कष्ट नहीं दे सकते। वह निर्लेप ​भाव में चिदानन्द स्वरूप में स्थित रहता है। शिवपुराणानुसार त्रिशूल सत्व, रज और तम—तीनों गुणों का भी प्रतीक है। त्रिलोचन भगवान शिव की भक्ति

छठ क्या है ......? चलिये जानते है। (What is Chhath Puja.....? Let me know)

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छठ क्या है  ?   और छठ पूजा का  क्या  महत्व  है  ? चलिये जानते है। भारत देश में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ पूजा । मुख्य रूप से इसे सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ पूजा कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है।  पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को स्त्री और पुरुष समान रूप से मनाते हैं। यह बात तो सभी को पता होगा कि भगवान सूर्य नारायण को हमारे धर्म ग्रंथों में प्रत्यक्ष देवता माना गया है। संसार के हर प्राणी के जीवन स्त्रोत सूर्य हैं. सूर्य के बिना हम इस धरती पर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।  सूर्य की साधना से ही आध्यात्मिक ऊर्जा की तलाश पूरी होती है। भगवान सूर्य के प्रति आस्था प्रकट करने के लिए ही सूर्य षष्ठी व्रत रखा जाता है। इस व्रत छठ माता की पूजा के नाम से भी जाना जाता है। सूर्यदेव को शाम को जल और दूध का अर्घ्य समर

श्री गुरू पादुका स्तोत्रम् ( Guru Paduka Stotra)

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।। श्री गुरू पादुका स्तोत्रम् ।। अनंत संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्यां। वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥१॥ कवित्व वाराशि निशाकराभ्यां दौर्भाग्यदावांबुदमालिक्याभ्यां। दूरीकृतानम्र विपत्तिताभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥२॥ नता ययोः श्रीपतितां समीयुः कदाचिदप्याशु दरिद्रवर्याः। मूकाश्च वाचसपतितां हि ताभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥३॥ नाली कनी काशपदाहृताभ्यां नानाविमोहादिनिवारिकाभ्यां। नमज्जनाभीष्टततिब्रदाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥४॥ नृपालिमौलि ब्रज रत्न कांति सरिद्विराज्झषकन्यकाभ्यां। नृपत्वदाभ्यां नतलोकपंक्ते: नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥५॥ पापांधकारार्क परंपराभ्यां पापत्रयाहीन्द्र खगेश्वराभ्यां। जाड्याब्धि संशोषण वाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥६॥ शमादिषट्क प्रदवैभवाभ्यां समाधि दान व्रत दीक्षिताभ्यां। रमाधवांघ्रि स्थिरभक्तिदाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥७॥ स्वार्चा पराणामखिलेष्टदाभ्यां स्वाहासहायाक्ष धुरंधराभ्यां। स्वान्ताच्छ भावप्रदपूजनाभ्यां नमो नमः

तोटकाष्टकं(Thotakashtakam)

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शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् । सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥ नारायणं पद्मभुवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च । व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम् ॥ श्री शंकराचार्यमथास्य पद्मपादं च हस्तामलकं च शिष्यम् । तं तोटकं वार्तिककारमन्यानस्मद्गुरून् संततमानतोऽस्मि ॥ ॥ तोटकाष्टकं ॥ विदिताखिलशास्त्रसुधाजलधे महितोपनिषत् कथितार्थनिधे । हृदये कलये विमलं चरणं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ १॥ करुणावरुणालय पालय मां भवसागरदुःखविदूनहृदम् । रचयाखिलदर्शनतत्त्वविदं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ २॥ भवता जनता सुहिता भविता निजबोधविचारण चारुमते । कलयेश्वरजीवविवेकविदं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ३॥ भव एव भवानिति मे नितरां समजायत चेतसि कौतुकिता । मम वारय मोहमहाजलधिं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ४॥ सुकृतेऽधिकृते बहुधा भवतो भविता समदर्शनलालसता । अतिदीनमिमं परिपालय मां भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ५॥ जगतीमवितुं कलिताकृतयो विचरन्ति महामहसश्छलतः । अहिमांशुरिवात्र विभासि गुरो भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ६॥ गुरुपुंगव पुंगवकेतन ते समतामयता

चन्द्रशेखराष्टकं (Chandrashekara Ashtakam)

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।। चन्द्रशेखराष्टकं ।। चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् । चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ १॥ रत्नसानुशरासनं रजतादिशृङ्गनिकेतनं सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् । क्षिप्रदघपुरत्रयं त्रिदिवालयैभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २॥ पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजदूयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रह।म् । भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशनं भवमव्ययं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ३॥ मत्त्वारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीमनोहरं पङ्कजासनपद्मलोचनपुजिताङ्घ्रिसरोरुहम् । देवसिन्धुतरङ्गसीकर सिक्तशुभ्रजटाधरं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ४॥ यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं शैलराजसुता परिष्कृत चारुवामकलेवरम् । क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ५॥ कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वरकुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् । अन्धकान्धकामा श्रिता मरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ६॥ भषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्ष

महाकाल भैरव स्तोत्रम् (Mahakaal Bhairav Stotram)

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।।  महाकाल भैरव स्तोत्रम्  ।। यं यं यं यक्ष रूपं दश दिशि विदितं भूमि कम्पायमानं सं सं सं संहार मूर्ति शुभ मुकुट जटा शेखरं चन्द्र विम्बं दं दं दं दीर्घ कायं विकृत नख मुख चौर्ध्व रोमं करालं पं पं पं पाप नाशं प्रणमतं सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ १ ॥ रं रं रं रक्तवर्णं कटक कटितनुं तीक्ष्णदंष्ट्रा विशालं घं घं घं घोर घोसं घ घ घ घ घर्घरा घोर नादं कं कं कं कालरूपं धग धग धगितं ज्वलितं कामदेहं दं दं दं दिव्य देहं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ २ ॥ लं लं लं लम्ब दन्तं ल ल ल ल लुलितं दीर्घ जिह्वाकरालं धूं धूं धूं धूम्रवर्ण स्फुट विकृत मुखंमासुरं भीम रूपं रूं रूं रूं रुण्डमालं रुधिरमय मुखं ताम्र नेत्रं विशालं नं नं नं नग्नरूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ३ ॥ वं वं वं वायुवेगं प्रलय परिमितं ब्रह्मरूपं स्वरूपं खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवन निलयं भास्करं भीमरूपं चं चं चं चालयन्तं चल चल चलितं चालितं भूत चक्रं मं मं मं मायकायं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ४ ॥ खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं काल कालान्धकारं क्षि क्षि क्षि क्षिप्र वेग दह दह दहन नेत्रं सांदि

दीपावली को पांच दिवसीय महोत्सव भी कहा जाता है। ( Diwali is a five day festival )

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1.कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी  कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को 'धनतेरस' भी कहा जाता है। इस दिन चिकित्सक भगवान धन्वंतरी की पूजा भी करते हैं। पुराणों के अनुसार कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय धन्वंतरी सफेद अमृत कलश लेकर अवतरित हुए थे। धनतेरस को सायंकाल यमराज के लिए दीपदान करना चाहिए। इससे अकाल मृत्यु का नाश होता है। धनतेरस को लोग नए बर्तन भी खरीदते हैं और धन की पूजा भी करते हैं। 2. कर्तिक कृष्ण चतुर्दशी कर्तिक कृष्ण चतुर्दशी 'नरक चतुर्दशी' या 'रूप चौदस' भी कहा जाता है। जो मनुष्यों नरक से डरता है उसे इस दिन चंद्रोदय के समय स्नान करना चाहिए व शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए। जो चतुर्दशी को प्रातःकाल तेल मालिश कर स्नान करता है। और रूप सँवारता है, उसे यमलोक के दर्शन नहीं करने पड़ते हैं। नरकासुर की स्मृति में चार दीपक भी जलाना चाहिए। पौराणीक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मै