भगवान शिव के विचित्र प्रतीक चिन्ह और उनका रहस्य चलिए जानते है (Let us know his secret symbol of Lord Shiva is bizarre)
भगवान शिव के सौम्य एवं प्रशान्त स्वरूप उनके विराट् व्यक्तित्व के साथ अनेक रहस्यपूर्ण एवं आश्चर्यमय पदार्थों का समावेश परिलक्षित होता है। जैसे रूद्राण किए हैं। उनकी सवारी वृषभ है और शिव कमण्डलू व भिक्षा पात्रादि ग्रहण किए हैं। जटाओं में गंगा धारण किए हुए तथा कण्ठ में कालकूट का विष, जहरीले सॉंप एवं समस्त शरीर अंगों पर भस्म धारण किए रहते हैं। भागवान शिव के अंग—संग रहने वाली देवी पार्वती, गण, देव एवं अन्य विभिन्न वस्तुएं किसी न किसी महान् संदेश या उद्देश्य या प्रतीकात्मक रूप को लक्षित करते हैं। भगवान् शिव का चिन्मय आदि स्वरूप शिवलिंग माना गया है, जबकि प्रकृति रूपा पार्वती शिवलिंग की पीठाधार है—
पठिमम्बामयं सर्व शिवलिंग च चिन्मयम्।।
ब्रह्मण्ड की आकृति भी शिवलिंग रूप है। शिवलिंग पूजा में शिव और शिक्ति दोनों की पूजा हो जाती है। शिवलिंग यदि शिवमय आत्मा है, तो उनके साथ छाया की तरह अवस्थित पार्वती, उस आत्मा की शक्ति है।
भगवान शिवलिंग पर अविरल (अखण्ड रूप) टपकने वाली जलधारा जलधारा जटाओं में स्थित पावन गंगा की प्रतीक है। मानों समस्त पावनता एवं पवित्रता की प्रतक गंगा सर्व कल्याणस्वरूप भगवान शिव में समाहित हो गई हो। वह ज्ञान—गंगा है। यह आध्यात्मिक पीयूष चेतना की (अमृतधारा) प्रतीक है।, जो मनुष्य है, जो मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता है, वह तीनों तापों के कष्ट से निवृत्त हो जाता है शिव क वहान नन्दी, वैसे ही हमारी आत्मा का वाहन शरीर (काया) है। अत: शिव को आत्मा का एवं नन्दी, वैसे ही हमारी आत्मा का वाहन शरीर प्रतीक समझा जा सकता है। जैसे नन्दी की दृष्टि सदाशिव की ओर ही है, वैसे ही हमारे शरीर का लक्ष्य आत्मा बने, यह संकेत समझना चाहिए। नन्दी धर्म का भी प्रतीक माना गया है
नन्दी के साथ ही कुछ देवालयों में कछुआ भी रखा जाता है जिसका मुख भी शिवमूर्ति की ओर होता है। नन्दी हमारे स्थूल शरीर का तथा कछुआ सूक्ष्म—शरीर अर्थात् मन का द्योतक है। हमारा मन कछुए जैसा कवचधारी और सुदृढ़ बनना चाहि। हमारा मन भी चक्षु—कानआदि इन्द्रियों को बाह्म सुखाकर्षण में न पड़कार संयम करते हुए अन्तर्मुखी प्रवृत्ति की ओर उन्मुख रहना चाहिए।
मन्दिर के द्वार पर श्रीगणेश और श्री हनुमान जी इ दोनों के आदर्श—यदि जीवन में चरितार्थ नहीं, तो शिव अर्थात् कल्याणमय आत्मा का साक्षात्कार सम्भव नहीं। गौरी पुत्र गणेश जी सूक्ष्म बुद्धि, विघ्नहर्ता एवं मातृ—पितृ भक्ति के प्रतीक हैं तथा श्रीहनुमान जी अपने स्वामी श्रीराम की अनन्य भक्ति और निष्काम सेवा के अद्वितीय स्वरूप थेश वे अहंकार शून्यता, ब्रह्मचर्य एवं विनम्रता की साक्षात् मूर्ति हैं।
भगवान शिव द्वारा धारण किए जाने वाले कपाल, कमण्डलु आदि पदार्थ सन्तोषी, तपस्वी, अपरिग्रही जीवन के प्रतीक हैं। भस्म् चिता भस्मालेपन तथा गले में मुण्डमाला, ज्ञान—वैराग्य और संसार की नश्वरता अनित्यता एवं क्षणभंगुरता की प्रतीक हैं। समस्त विभूतियों के स्वामी होते हुए भी स्वयं उनसे अप्रभावित रहते है।
त्रिदल—बिल्वपत्र, तीन—नेत्र, त्रिपुण्ड्र, त्रिशूल आदि सत्तगुण, रजोगुण, तमोगुण—इन तीनों की विषमताओं को सम करने को सम करने का संकेत है। उनके तीने नेत्र सूर्य, चन्द्र एवं अग्नि के प्रतीक हैं क्योंकि शिव सूर्य की भान्ति तम और अज्ञान का नाश करने वाले, चन्द्रमा की तरह ह्रदय को आनन्द प्रदान करने वाले और तीसरा नेत्र, ज्ञान—अग्नि की भान्ति (काम, क्रोधादि) कुविचारों को जलाकर शुद्ध स्वरूप देता है।
शंख, डमरू आदि भीतरी अनाहत—नाद के भी संकेत हैं, जिसे 'नाद ब्रह्म' कहते हैं। देवासुरों द्वारा समुद्रमंथन के समय वासुकि नाग के मुख से भयंकर विष की ज्वालाएं उठीं और समुद्र जल में मिश्रित होकर वे कलकूट विष के रूप में प्रकट हो गईं। उसकी ज्वालाएं आकाश तक व्याप्त होकर तबाही करने लगीं, जिससे भगवान कर लोक कल्याण के लिए अपने कण्ठ में धारण कर लिया। इसी से वे 'नीलकण्ठ' कहलाए। उसी समय समुद्र से अमृत किरणों से युक्त चन्द्रमा भी प्रकट हुए, जिन्हें देवताओं के अनुरोध पर भगवान शंकर ने उद्दीप्त (तीव्र) विष की शान्ति के लिए अपने ललाट पर धारण कर लिया और वोह 'चन्द्रशेखर' कहलाए।
इस प्रकार भगवान् शिव के प्रतीक चिन्हों के तत्त्व रहस्यों का चिन्तन व चरितार्थ करके एवं भावना से ओत—प्रोत बने व्यक्तित्व से ही शिवमय अर्थात् कल्याणमय बना जा सकता हैं। आगमी पृष्ठों में भगवान शिव द्वारा धारित कुछ सर्प, गंगा, भस्मादि प्रतीकात्मक रहस्यों का विस्तृत विवरण दिया जा रहा है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें