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"अहम् ब्रह्मास्मि" ।। Aham Brahmasmi

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"अहम् ब्रह्मास्मि" संस्कृत भाषा की एक प्राचीन महावाक्य है,  जिसका अनुवाद है: "मैं ब्रह्म हूँ"।  इसका अर्थ है कि आत्म - या ’मैं '- अनिवार्य रूप से सभी-व्यापक और आदिकालीन आध्यात्मिक बल के समान है, जो कि अनादि काल से अस्तित्व में है और भौतिक दुनिया की मृत्यु के बाद भी मौजूद रहेगा।  यहाँ 'अस्मि' शब्द का तात्पर्य ब्रह्म और जीव की एकता से है। जब कोई जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। अहं ब्रह्मास्मि के कई अर्थ है- "मैं ब्रह्म हूँ", " मैं ब्रह्म का अंश हूँ"  अर्थात मेरे अन्दर ब्रहमाण्ड की सारी शक्तियाँ है, मैं ही सर्वशक्तिमान हूँ। वेदचार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद यह शक्तिशाली नारा, अहम् ब्रह्मास्मि, महाकाव्यों में से एक है जो मूल रूप से शुक्ल यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद पाठ में पाया जाता है।

कामना सिद्धि के लिए जपें मां दुर्गा का यह मंत्र || Navdurga ।। नवसर्जन मंत्र ।। Mahatma Mantra

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साधारण तरीके से माता का आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, चंदन, कुंमकुंम, हल्दी, सिंदूर इत्यादि समर्पण कर धूप, दीप, नेवैद्य, ताम्बूल, आरती, पुष्पांजलि, प्रदक्षिणा कर क्षमा-प्रार्थना कर जप करें। नवार्ण मंत्र सबसे प्रशस्त मंत्र माना गया है।  देवी इससे प्रसन्न हो जाती है और आपकी सभी मनोकामनाएं इसी से पूर्ण हो जाती हैं तथा देवी की कृपा एवं आशीर्वाद इस से मिल जाता है। ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।  ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।  ' ऐं' श्री महासरस्वती का बीज मंत्र है। वाणी, ऐश्वर्य, बुद्धि तथा ज्ञान देने वाला है। ' ह्रीं' श्री महालक्ष्मी का बीज मंत्र है। ऐश्वर्य, धन देने वाला है। ' क्लीं' शत्रुनाशक महाकाली का बीज मंत्र है। जो भी मुख्य आवश्यकता हो, वह बीज मंत्र के आदि में लगाकर जप करें, जैसे- ॐ ह्रीं ऐं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।  ॐ क्लीं ऐं ह्रीं चामुण्डायै विच्चे।।  गायत्री मंत्र के आदि तथा अंत में निर्दिष्ट बीज मंत्रों का उपयोग 3 बार कर लाभ लिया जा सकता है। 'श्रीं' धन के लिए, जैसे '

॥ शम्भुस्तोत्रम् ॥

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नानायोनिसहस्रकोटिषु मुहुः संभूय संभूय तद्- गर्भावासनिरन्तदुःखनिवहं वक्तुं न शक्यं च तत् । भूयो भूय इहानुभूय सुतरां कष्टानि नष्टोऽस्म्यहं त्राहि त्वं करुणातरङ्गितदृशा शंभो दयाम्भोनिधे ॥ १ ॥ बाल्ये ताडनपीडनैर्बहुविधैः पित्रादिभिर्बोधितः तत्कालोचितरोगजालजनितैर्दुःखैरलं बाधितः । लीलालौल्यगुणीकृतैश्च विविधैर्दुश्चोष्टितैः क्लेशितः सोऽहं त्वां शरणं व्रजाम्यव विभो शंभो दयाम्भोनिधे ॥ २ ॥ तारुण्ये मदनेन पीडिततनुः कामातुरः कामिनी- सक्तस्तद्वशगः स्वधर्मविमुखः सद्भिः सदा दूषितः । कर्माकार्षमपारनारकफलं सौख्याशया दुर्मतिः त्राहि त्वं करुणातरङ्गितदृशा शंभो दयाम्भोनिधे ॥ ३ ॥ वृद्धत्वे गलिताखिलेन्द्रियबलो विभ्रष्टदन्तावलिः श्वेतीभूतशिराः सुजर्जरतनुः कम्पाश्रयोऽनाश्रयः । लालोच्छिष्टपुरीषमूत्रसलिलक्लिन्नोऽस्मि दीनोऽस्म्यहं त्राहि त्वं करुणातरङ्गितदृशा शंभो दयाम्भोनिधे ॥ ४ ॥ ध्यातं ते पदाम्बुजं सकृदपि ध्यातं धनं सर्वदा पूजा ते न कृता कृता स्ववपुषः स्त्रग्गन्धलेपार्चनैः । नान्नाद्यैः परितर्पिता द्विजवरा जिह्वैव संतर्पिता पापिष्ठेन मया सदाशिव विभो शंभो दयाम्भोनिधे ॥ ५ ॥ संध्यास

रामायण मनका 108 || Ramayan Manka 108 Lyrics

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रामायण मनका 108 || Ramayan Manka 108 Lyrics इस पाठ की एक माला प्रतिदिन करने से मनोकामना पूर्ण होती है, ऎसा माना गया है. रघुपति राघव राजाराम । पतितपावन सीताराम ।। जय रघुनन्दन जय घनश्याम । पतितपावन सीताराम ।। भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे । दूर करो प्रभु दु:ख हमारे ।। दशरथ के घर जन्मे राम । पतितपावन सीताराम ।। 1 ।। विश्वामित्र मुनीश्वर आये । दशरथ भूप से वचन सुनाये ।। संग में भेजे लक्ष्मण राम । पतितपावन सीताराम ।। 2 ।। वन में जाए ताड़का मारी । चरण छुआए अहिल्या तारी ।। ऋषियों के दु:ख हरते राम । पतितपावन सीताराम ।। 3 ।। जनक पुरी रघुनन्दन आए । नगर निवासी दर्शन पाए ।। सीता के मन भाए राम । पतितपावन सीताराम ।। 4।। रघुनन्दन ने धनुष चढ़ाया । सब राजो का मान घटाया ।। सीता ने वर पाए राम । पतितपावन सीताराम ।।5।। परशुराम क्रोधित हो आये । दुष्ट भूप मन में हरषाये ।। जनक राय ने किया प्रणाम । पतितपावन सीताराम ।।6।। बोले लखन सुनो मुनि ग्यानी । संत नहीं होते अभिमानी ।। मीठी वाणी बोले राम । पतितपावन सीताराम ।।7।। लक्ष्मण वचन ध्यान मत दीजो । जो कुछ दण्ड दास को

श्री गंगा जी की आरती (Shri Gangaji ki Aarti)

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श्री गंगा जी की आरती (Shri Gangaji ki Aarti)   ॐ जय गंगे माता, श्री गंगे माता। जो नर तुमको ध्याता, मनवांछित फल पाता। ॐ जय गंगे माता...   चन्द्र-सी ज्योत तुम्हारी जल निर्मल आता। शरण पड़े जो तेरी, सो नर तर जाता। ॐ जय गंगे माता...   पुत्र सगर के तारे सब जग को ज्ञाता। कृपा दृष्टि तुम्हारी, त्रिभुवन सुख दाता। ॐ जय गंगे माता...   एक ही बार भी जो नर तेरी शरणगति आता। यम की त्रास मिटा कर, परम गति पाता। ॐ जय गंगे माता...   आरती मात तुम्हारी जो जन नित्य गाता। दास वही जो सहज में मुक्ति को पाता। ॐ जय गंगे माता...   ॐ जय गंगे माता...।।