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श्री गुरू पादुका स्तोत्रम् ( Guru Paduka Stotra)

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।। श्री गुरू पादुका स्तोत्रम् ।। अनंत संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्यां। वैराग्य साम्राज्यद पूजनाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥१॥ कवित्व वाराशि निशाकराभ्यां दौर्भाग्यदावांबुदमालिक्याभ्यां। दूरीकृतानम्र विपत्तिताभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥२॥ नता ययोः श्रीपतितां समीयुः कदाचिदप्याशु दरिद्रवर्याः। मूकाश्च वाचसपतितां हि ताभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥३॥ नाली कनी काशपदाहृताभ्यां नानाविमोहादिनिवारिकाभ्यां। नमज्जनाभीष्टततिब्रदाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥४॥ नृपालिमौलि ब्रज रत्न कांति सरिद्विराज्झषकन्यकाभ्यां। नृपत्वदाभ्यां नतलोकपंक्ते: नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥५॥ पापांधकारार्क परंपराभ्यां पापत्रयाहीन्द्र खगेश्वराभ्यां। जाड्याब्धि संशोषण वाड्वाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥६॥ शमादिषट्क प्रदवैभवाभ्यां समाधि दान व्रत दीक्षिताभ्यां। रमाधवांघ्रि स्थिरभक्तिदाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥७॥ स्वार्चा पराणामखिलेष्टदाभ्यां स्वाहासहायाक्ष धुरंधराभ्यां। स्वान्ताच्छ भावप्रदपूजनाभ्यां नमो नमः

तोटकाष्टकं(Thotakashtakam)

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शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम् । सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ॥ नारायणं पद्मभुवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च । व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम् ॥ श्री शंकराचार्यमथास्य पद्मपादं च हस्तामलकं च शिष्यम् । तं तोटकं वार्तिककारमन्यानस्मद्गुरून् संततमानतोऽस्मि ॥ ॥ तोटकाष्टकं ॥ विदिताखिलशास्त्रसुधाजलधे महितोपनिषत् कथितार्थनिधे । हृदये कलये विमलं चरणं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ १॥ करुणावरुणालय पालय मां भवसागरदुःखविदूनहृदम् । रचयाखिलदर्शनतत्त्वविदं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ २॥ भवता जनता सुहिता भविता निजबोधविचारण चारुमते । कलयेश्वरजीवविवेकविदं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ३॥ भव एव भवानिति मे नितरां समजायत चेतसि कौतुकिता । मम वारय मोहमहाजलधिं भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ४॥ सुकृतेऽधिकृते बहुधा भवतो भविता समदर्शनलालसता । अतिदीनमिमं परिपालय मां भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ५॥ जगतीमवितुं कलिताकृतयो विचरन्ति महामहसश्छलतः । अहिमांशुरिवात्र विभासि गुरो भव शंकर देशिक मे शरणम् ॥ ६॥ गुरुपुंगव पुंगवकेतन ते समतामयता

गुरू अष्टकम् (Guru Ashakam)

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।। गुरू अष्टकम् ।। शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं यशश्र्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यं मनश्र्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ||1 भावार्थ— यदि शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ? कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् मनश्र्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं ||2 भावार्थ— सुन्दरी पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र, घर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में मन की आसक्ति न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ? षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति मनश्र्चेन लग्नं गुरोरङ्घ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किं || 3 भावार्थ— वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ? विदेशे

चन्द्रशेखराष्टकं (Chandrashekara Ashtakam)

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।। चन्द्रशेखराष्टकं ।। चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् । चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ १॥ रत्नसानुशरासनं रजतादिशृङ्गनिकेतनं सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् । क्षिप्रदघपुरत्रयं त्रिदिवालयैभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २॥ पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजदूयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रह।म् । भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशनं भवमव्ययं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ३॥ मत्त्वारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीमनोहरं पङ्कजासनपद्मलोचनपुजिताङ्घ्रिसरोरुहम् । देवसिन्धुतरङ्गसीकर सिक्तशुभ्रजटाधरं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ४॥ यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं शैलराजसुता परिष्कृत चारुवामकलेवरम् । क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ५॥ कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वरकुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् । अन्धकान्धकामा श्रिता मरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ६॥ भषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्ष

महाकाल भैरव स्तोत्रम् (Mahakaal Bhairav Stotram)

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।।  महाकाल भैरव स्तोत्रम्  ।। यं यं यं यक्ष रूपं दश दिशि विदितं भूमि कम्पायमानं सं सं सं संहार मूर्ति शुभ मुकुट जटा शेखरं चन्द्र विम्बं दं दं दं दीर्घ कायं विकृत नख मुख चौर्ध्व रोमं करालं पं पं पं पाप नाशं प्रणमतं सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ १ ॥ रं रं रं रक्तवर्णं कटक कटितनुं तीक्ष्णदंष्ट्रा विशालं घं घं घं घोर घोसं घ घ घ घ घर्घरा घोर नादं कं कं कं कालरूपं धग धग धगितं ज्वलितं कामदेहं दं दं दं दिव्य देहं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ २ ॥ लं लं लं लम्ब दन्तं ल ल ल ल लुलितं दीर्घ जिह्वाकरालं धूं धूं धूं धूम्रवर्ण स्फुट विकृत मुखंमासुरं भीम रूपं रूं रूं रूं रुण्डमालं रुधिरमय मुखं ताम्र नेत्रं विशालं नं नं नं नग्नरूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ३ ॥ वं वं वं वायुवेगं प्रलय परिमितं ब्रह्मरूपं स्वरूपं खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवन निलयं भास्करं भीमरूपं चं चं चं चालयन्तं चल चल चलितं चालितं भूत चक्रं मं मं मं मायकायं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ४ ॥ खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं काल कालान्धकारं क्षि क्षि क्षि क्षिप्र वेग दह दह दहन नेत्रं सांदि

निर्वाण षटकम् (Nirvana Shatakam)

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॥ निर्वाण षटकम्॥ मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥ भावार्थ— मैं मन नहीं कर रहा हूँ, और न ही बुद्धि, और न ही अहंकार, और न ही भीतर के स्व का प्रतिबिंब। मैं पांच इंद्रियों नहीं हूं। मुझे लगता है कि परे हूँ। मैं आकाश नहीं है, न ही पृथ्वी, और न ही आग, और न ही हवा (यानी पांच तत्वों) हूँ। मैं, वास्तव में हूँ अनन्त जानने और आनंद, शिव, प्यार और शुद्ध चेतना है कि। न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश: न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥ भावार्थ— न तो मैं और ऊर्जा के रूप में कहा जा सकता है, और न ही सांस  के पांच प्रकार, और न ही सात सामग्री सुगंध, और न ही पांच कवरिंग (कोष)। न तो मैं उन्मूलन, उत्पत्ति, गति, लोभी, या बोलने के पांच वाद्ययंत्र हूँ। मैं, वास्तव में हूँ अनन्त जानने और आनंद, शिव, प्यार और शुद्ध चेतना है कि। न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव: न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: च

दीपावली को पांच दिवसीय महोत्सव भी कहा जाता है। ( Diwali is a five day festival )

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1.कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी  कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को 'धनतेरस' भी कहा जाता है। इस दिन चिकित्सक भगवान धन्वंतरी की पूजा भी करते हैं। पुराणों के अनुसार कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय धन्वंतरी सफेद अमृत कलश लेकर अवतरित हुए थे। धनतेरस को सायंकाल यमराज के लिए दीपदान करना चाहिए। इससे अकाल मृत्यु का नाश होता है। धनतेरस को लोग नए बर्तन भी खरीदते हैं और धन की पूजा भी करते हैं। 2. कर्तिक कृष्ण चतुर्दशी कर्तिक कृष्ण चतुर्दशी 'नरक चतुर्दशी' या 'रूप चौदस' भी कहा जाता है। जो मनुष्यों नरक से डरता है उसे इस दिन चंद्रोदय के समय स्नान करना चाहिए व शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए। जो चतुर्दशी को प्रातःकाल तेल मालिश कर स्नान करता है। और रूप सँवारता है, उसे यमलोक के दर्शन नहीं करने पड़ते हैं। नरकासुर की स्मृति में चार दीपक भी जलाना चाहिए। पौराणीक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि रंति देव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे। उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके समक्ष यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मै

धनतेरस पूजा विधि - Dhanteras Poojan Vidhi

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कार्तिक का महिना वैदिक ज्योतिष के हिसाब से बहुत ज्यादा महत्तव रखता है। इस महीने में बहुत से महत्वपूर्ण त्यौहार आते हैं और साधना के लिए भी ये उपयुक्त समय होता है। कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष के तेरहवे दिन “धनतेरस” नाम का त्यौहार भारत में मनाया जाता है। पांच महत्वापोरना दिन- धन तेरस के दिन महत्त्वपूर्ण चीजे खरीदने का रिवाज है , सोना-चाँदी के जेवर आदि खरीदने का रिवाज है। वास्तव में धन तेरस के दिन से आने वाले पांच दिन बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। इसके ठीक दुसरे दिन "नरक चतुर्दशी” मनाई जाती है जिस दिन लोग विशेष तौर पर सफाई करके माँ लक्ष्मी को आमंत्रित करते हैं। “नरक चतुर्दशी” के बाद दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है।   उसके बाद गोवेर्धन की पूजा होती है और उसके अगले दिन “भाई दूज” मनाया जाता है। अतः धन तेरस के दिन से लोग व्यस्त हो जाते हैं विभिन्न प्रकार के कर्म कांडो में।। धन तेरस के दिन लोग घर में उपयोग में आने वाले बर्तन ,   सोना-चांदी के जेवर ,  आदि खरीदते हैं। ये माना जाता है  की धनतेरस की दिन कोई भी वास्तु लेना शुभ होता है, ओर आपको कमियाबी मिलती है एवं आपके घर

दिपावली क्या है .. ? चलिऐ जानते है। - Diwali Kya Hai Chaliye Jante hai

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दिपावली क्या है ​चलिऐ जानते है। इसके बारे में इसके पीछे कि कहानी। दिपावली तो सभी मनाते है परंन्तु क्या किसी ने यह जानने कि कोशिस की है कि दिपावली को मनाने के पीछे कारण क्या है, चलिऐ आपको बताते है। राम अयोध्या लौटे थे - प्राचीन ग्रन्थ रामायण में बताया गया है कि कई लोग दीपावली को 14 साल के वनवास पश्चात भगवान राम व उनकी पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की वापसी के सम्मान के रूप में मानते हैं। निर्वाण दिवस दीपावली - प्राचीन महाकाव्य महाभारत के अनुसार कुछ लोग दीपावली को पांडवों के 12 वर्षों के वनवास व 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद उनकी वापसी के प्रतीक रूप में मानते हैं। और एक तरफ कुछ लोग दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी तथा उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से शुरू होता है। दीपावली की रात वह दिन है जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे शादी की। मॉंं लक्ष्मी के साथ-साथ भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश, संगीत

श्री वीरभद्र चालीसा - Shri Veerbhadra chalisa

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श्री वीरभद्र चालीसा || दोहा ||   वन्‍दो वीरभद्र शरणों शीश नवाओ भ्रात । ऊठकर ब्रह्ममुहुर्त शुभ कर लो प्रभात ॥ ज्ञानहीन तनु जान के भजहौंह शिव कुमार। ज्ञान ध्‍यान देही मोही देहु भक्‍ति सुकुमार। || चौपाई || जय-जय शिव नन्‍दन जय जगवन्‍दन । जय-जय शिव पार्वती नन्‍दन ॥ जय पार्वती प्राण दुलारे। जय-जय भक्‍तन के दु:ख टारे॥ कमल सदृश्‍य नयन विशाला । स्वर्ण मुकुट रूद्राक्षमाला॥ ताम्र तन सुन्‍दर मुख सोहे। सुर नर मुनि मन छवि लय मोहे॥ मस्‍तक तिलक वसन सुनवाले। आओ वीरभद्र कफली वाले॥ करि भक्‍तन सँग हास विलासा ।पूरन करि सबकी अभिलासा॥ लखि शक्‍ति की महिमा भारी।ऐसे वीरभद्र हितकारी॥ ज्ञान ध्‍यान से दर्शन दीजै।बोलो शिव वीरभद्र की जै॥ नाथ अनाथों के वीरभद्रा। डूबत भँवर बचावत शुद्रा॥ वीरभद्र मम कुमति निवारो ।क्षमहु करो अपराध हमारो॥ वीरभद्र जब नाम कहावै ।आठों सिद्घि दौडती आवै॥ जय वीरभद्र तप बल सागर । जय गणनाथ त्रिलोग उजागर ॥ शिवदूत महावीर समाना । हनुमत समबल बुद्घि धामा ॥ दक्षप्रजापति यज्ञ की ठानी । सदाशिव बिन सफल यज्ञ जानी॥ सति निवेदन शिव आज्ञा दीन्‍ही । यज

श्री बालकृष्ण जी की आरती - Shri Balkishan Ji Ki Aarti

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श्री बालकृष्ण जी की  आरती  आरती युगल किशोर की कीजै | राधे धन न्यौछावर कीजै || टेक || रवि शशि कोटि बदन की शोभा | ताहि निरख मेरो मन लोभा || आरती गौर श्याम मुख निरखत रीझै | प्रभु को रूप नयन भर पीजै || आरती आरती बालकृष्ण की कीजै | अपनों जनम सुफल करि लीजै | श्रीयशुदा को परम दुलारौ | बाबा की अखियन कौ तारो || गोपिन के प्राणन को प्यारौ | इन पै प्राण निछावरी कीजै | आरती बालकृष्ण की कीजै || बलदाऊ कौ छोटो भैया | कनुआँ कहि कहि बोलत मैया | परम मुदित मन लेत वलैया | यह छबि नयननि में भरि लीजै | आरती बालकृष्ण की कीजै || श्री राधावर सुघर कन्हैया | ब्रजजन कौ नवनीत खवैया | देखत ही मन नयन चुरैया | अपनौ सरबस इनकूं दीजे | आरती बालकृष्ण की कीजै || तोतरि बोलनि मधुर सुहावै | सखन मधुर खेलत सुख पावै | सोई सुकृति जो इनकूं ध्यावै | अब इनकूं अपनों करि लीजै | आरती बालकृष्ण की कीजै ||

श्री कृष्णचन्द्र जी की आरती - Shri Kishanchandra Ji Ki Aarti

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श्री कृष्णचन्द्र जी  की आरती  कंचन थार कपूर की बाती | हरि आये निर्मल भई छाती || आरती फूलन के सेज फूलन की माला | रत्न सिंहासन बैठे नन्दलाला || आरती मोर मुकुट कर मुरली सोहै | नटवर वेष देख मन मोहे || आरती आधा नील पीतपट सारी | कुंज बिहारी गिरवर धारी || आरती श्री पुरुषोत्तम गिरवर धारी | आरती करत सकल ब्रजनारी || आरती नन्दनन्दन वृषभान किशोरी | परमानन्द स्वामी अविचल जोरी || आरती

रानी सती जी की आरती - Rani Sati Ji Ki Aatri

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रानी सती जी की आरती जय श्री रानी सती मैया , जय श्री रानी सती | अपने भक्त जनों की दूर करने विपत्ति || जय अवनि अनवर ज्योति अखंडित मंडित चहुँ कुकुमा | दुर्जन दलन खंग की विद्युत् सम प्रतिभा || जय मरकत मणि मन्दिर अति मंजुल शोभा लाख न परे | ललित ध्वजा चहुँ और कंचन कलस धरे || जय घंटा घनन घडावल बाजे शंख मृदंग धुरे | किंनर गायन करते वेद ध्वनि उचरे || जय सप्त मातृका करें आरती सुरगण ध्यान धरे | विविध प्रकार के व्यंजन श्री भेंट धरे || जय संकट विकट विडानि नाशनि हो कुमती | सेवक जन हृदि पटले मृदुल करन सुमती || जय अमल कमल दल लोचनि मोचनि त्रय तापा | " शांति " सुखी मैया तेरी शरण गही माता || जय या मैया जी की आरती जो कोई नर गावे | सदन सिद्धि नवनिधि फल मन वांछित पावें || जय

प्रभु जन्म की आरती - Prabhu Janam Ki Aarti

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प्रभु जन्म की आरती  भय प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशिल्या हितकारी | हरषित महतारी मुनि-मन हारी अदभुत रूप निहारी || लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुजचारी | भूषण बन माला नयन विशाला शोभा सिन्धु खरारी || कह दुई कर जोरी स्तुति तोरी केहिविधि करूं अनन्ता | माया गुण ज्ञान तीत अमाना वेद पुराण भनन्ता || करुण सुखसागर सब गुनआगर जोहिं गावहीं श्रुतिसंता | सो मम हित लागी जन अनुरागी प्रगट भय श्रीकन्ता || ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रतिवेद कहे | मम उर सो वासी यह उपहासी सुनत धीरमति थिर नरहे || उपजा जब ज्ञाना प्रभुमुस्कान चरित बहुतविधि कीन्ह्चहे | कहि कथा सुनाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सूत प्रेम लहे || माता पुनि बोली सो मति डोली तजहूँ तात यह रूपा | कीजे शिशुलीला अति प्रियशीला यह सुख परम अनूपा || सुनि वचन सुजाना रोदन ठाना हवै बालक सुर भूप | यह चरित जो गावहिं हरिपद पावहीं ते न परहीं भव कूपा ||

संकटमोचन हनुमानाष्ट्क - Sankatmochan Hanumanashtak

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संकटमोचन हनुमानाष्ट्क  बाल समय रवि भक्ष लियो , तब तीनहुं लोक भयो अंधियारों | ताहि सों त्रास भयो जग को , यह संकट काहु सों जात न टारो || देवन आनि करी विनती तब , छाडि दियो रवि कष्ट निवारो | को नाहिं जानत है जग में कपि , संकटमोचन नाम तिहारो || को० बालि की त्रास कपीस बसै गिरि , जात महाप्रभु पंथ निहारो || चौंकि महामुनि शाप दियो , तब चाहिये कौन विचार विचारो | कैद्विज रूप लिवास महाप्रभु , सो तुम दास के सोक निवारो || को० अंगद के संग लेन गए सिय , खोज कपीस यह बैन उचारो | जीवत ना बचिहौं हम सों जु , बिना सुधि लाए इहं पगुधारो | हेरि थके तट सिंधु सबै तब , लाय सिया सुधि प्राण उबारो || को० रावण त्रास दई सिय को तब , राक्षस सों कहि सोक निवारो | ताहि समय हनुमान महाप्रभु , जाय महा रजनीचर मारो | चाहत सिय अशोक सों आगिसु , दै प्रभु मुद्रिका सोक नवारो || को० बान लग्यो उर लछिमन के तब , प्राण तजे सुत रावण मारो | लै गृह वैद्य सुखेन समेत , तबै गिरि द्रोंन सु-बीर उपारो | आनि संजीवनि हाथ दई तब , लछिमन के तुम प्राण उबारो || को० रावन युद्ध अज